"भारत: कर्जन से नेहरू तक" प्रसिद्ध पत्रकार दुर्गादास के नजरिए से

"भारत: कर्जन से नेहरू तक" प्रसिद्ध पत्रकार दुर्गादास के नजरिए से

भारत के आधुनिक इतिहास में केवल तिथियाँ, व्यक्तियों या संतों की सूची नहीं है, बल्कि यह उन व्यक्तियों की भी दास्तां है, युद्ध में इस देश की आत्मा को गढ़ा और बदला गया है। यदि  कर्ज़न को ब्रिटिश साम्राज्य के कट्टर प्रतिद्वंद्वी का प्रतिनिधि माना जाए, तो नेहरू को स्वतंत्र भारत के स्वप्निल शिल्पकार माने जाते हैं। ये दोनों विशेषण दो अलग-अलग युगों के प्रतीक हैं ।

यहाँ  लेखक "कर्ज़न से नेहरू" की उस ऐतिहासिक यात्रा का गहन विश्लेषण किए है, जो न केवल राजनीतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक दृष्टि से भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है। दुर्गा प्रसाद जी ने यह स्पष्ट किया है कि भारत का संघर्ष केवल अंग्रेजों के खिलाफ नहीं था, बल्कि यह औपनिवेशिक मानसिकता के खिलाफ भी था। यह मानसिकता आज भी कई सिद्धांतों के माध्यम से हमारे सामने प्रकट होती है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि स्वतंत्रता की लड़ाई केवल भौतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह एक व्यापक सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन की आवश्यकता को भी दर्शाती है। इस यात्रा के दौरान, विभिन्न विचारधाराओं और आंदोलनों का समागम हुआ, जिसने भारतीय समाज को एक नई दिशा दी और स्वतंत्रता संग्राम को एक गहन वैचारिक आधार प्रदान किया।

 लॉर्ड कर्जन का काल (1899 से 1905)

औपनिवेशिक शासन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण और निर्णायक चरण के रूप में देखा जाता है। यह समय भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के सबसे आक्रामक और चुनौतीपूर्ण दौर के रूप में पहचाना जाता है। जब 1899 में कर्जन भारत आए, तब ब्रिटिश साम्राज्य की स्थिति काफी कमजोर प्रतीत हो रही थी, लेकिन कर्जन ने साम्राज्य को पुनर्जीवित करने का कार्य अपने हाथ में लिया। उनका आगमन केवल एक विशेष उद्देश्य के लिए नहीं था, बल्कि वह साम्राज्यवादी अलगाव का एक वास्तविक प्रतीक भी बन गए। उनके कार्यकाल में कई महत्वपूर्ण नीतियों और निर्णयों ने भारतीय समाज और राजनीति पर गहरा प्रभाव डाला, जिससे औपनिवेशिक शासन की दिशा में महत्वपूर्ण बदलाव आए।

बंगाल का विभाजन:

फूट डालो और राज करो की चरम नीति 1905 में बंगाल का विभाजन कर्ज़न द्वारा लागू की गई एक अत्यंत विनाशकारी और विवादास्पद नीति थी। बंगाल, जो राजनीतिक जागरूकता का केंद्र बन चुका था, को हिंदू और मुस्लिम आधार पर दो भागों में विभाजित किया गया - यह स्पष्ट रूप से "फूट डालो और राज करो" की रणनीति का उदाहरण है। पूर्वी बंगाल: मुस्लिम बहुल क्षेत्र पश्चिमी बंगाल: हिंदू बहुसंख्यक क्षेत्र बना, हालांकि कर्ज़न ने इसे सार्वभौमिक सुविधा का नाम दिया, लेकिन राष्ट्रीय नेताओं और जनता ने इसे साम्प्रदायिकता की नींव के रूप में देखा। इस विभाजन ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में नई ऊर्जा का संचार किया।

विघटनकारी और भारतीय असंतोष

कर्जन का दृष्टिकोण हमेशा शीर्ष से नीचे की शक्ति पर केंद्रित रहा। वे भारतीयों को अधिकार देने के खिलाफ थे और उनका मानना था कि भारतीयों को शासन में कोई भागीदारी नहीं होनी चाहिए। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था: "अंग्रेज शासकों की एक विशेष जाति हैं; भारतीय लोग पराधीन हैं।" यह विचार ब्रिटिश उपनिवेशी प्रशासन की ओर से उत्पन्न हुआ, जिसमें न केवल शासन की शक्ति बल्कि किले और अन्य महत्वपूर्ण संस्थानों पर भी नियंत्रण स्थापित किया गया था। इस दृष्टिकोण ने भारतीय समाज में असंतोष और विघटनकारी भावनाओं को जन्म दिया, जिससे स्वतंत्रता की आकांक्षा और अधिक प्रबल हुई।


कर्जन का शिक्षा और संस्कृति पर  प्रभाव  

कर्जन शैक्षणिक संस्थानों और छात्रों पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया, जिससे शिक्षा के क्षेत्र में कई परिवर्तन आए। 1904 का विश्वविद्यालय अधिनियम इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से राष्ट्रीयता की भावना को कमजोर करना था। इसके परिणामस्वरूप, छात्रों और शैक्षणिक ढांचे में असंतोष उत्पन्न हुआ। हालांकि, इस असंतोष का एक महत्वपूर्ण परिणाम यह भी था कि युवा वर्ग स्वतंत्रता आंदोलन से और अधिक जुड़ने लगा। इस प्रकार, कर्जन की नीतियों ने न केवल शिक्षा पर प्रभाव डाला, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम में युवाओं की भागीदारी को भी बढ़ावा दिया।

कर्ज़न ने भारत को विभाजित करने का प्रयास किया, लेकिन उनके इस प्रक्रिया से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का उदय हुआ। बंगाल विभाजन के खिलाफ उठे स्वदेशी आंदोलन ने भारतीय समाज में एक नई चेतना का संचार किया। इस आंदोलन के अंतर्गत बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा का प्रचार और भारतीय वस्त्रों को प्राथमिकता देने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए गए। ये सभी पहलें कर्ज़न के कट्टर आलोचकों की विचारधारा का अभिन्न हिस्सा बन गईं, जिन्होंने इस विभाजन के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष किया और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी। इस प्रकार, कर्ज़न की नीतियों ने अनजाने में भारतीय राष्ट्रीयता को जागृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


औपनिवेशिक समाज का विकास और संघर्ष

कर्ज़न की औपनिवेशिक कंपनियों और बंगाल क्षेत्र में घटित घटनाओं ने भारत में एक नई चेतना का संचार किया। यह चेतना राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक सभी स्तरों पर फैली। इस काल में, भारत के विभिन्न समूहों और समुदायों ने स्वतंत्रता की ज्योति को प्रज्वलित करना आरंभ किया। औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लोगों में जागरूकता बढ़ी, जिससे वे अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित हुए। इस समय, भारतीय समाज में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ, जिसने विभिन्न आंदोलनों और विचारधाराओं को जन्म दिया, जो अंततः स्वतंत्रता संग्राम का आधार बने। यह संघर्ष केवल राजनीतिक नहीं था, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण कदम था, जिसने भारतीय समाज को एकजुट करने और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

 सामाजिक पहचान का अनुभव

19वीं सदी के अंतिम चरण और 20वीं सदी की शुरुआत में भारत में कई महत्वपूर्ण सामाजिक सुधारों की शुरुआत हुई। इस अवधि के दौरान, ब्रह्म स माज, आर्य समाज, और प्रार्थना समाज जैसे विभिन्न संगठनों ने समाज में व्याप्त कुरीतियों और सामाजिक असमानताओं के खिलाफ एक सक्रिय और प्रभावी भूमिका निभाई। इन संगठनों ने न केवल जागरूकता फैलाने का कार्य किया, बल्कि उन्होंने सुधारात्मक उपायों को भी अपनाया, जिससे समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने का प्रयास किया गया। इनकी गतिविधियों ने लोगों को सामाजिक न्याय, समानता और मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशील बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन संगठनों ने जातिवाद, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, और स्त्री शिक्षा की कमी जैसी समस्याओं के खिलाफ आवाज उठाई। इन सुधारकों ने भारतीय समाज को यह सिखाया कि यदि वे सामाजिक दासता को समाप्त करने में असफल रहते हैं, तो राजनीतिक स्वतंत्रता की प्राप्ति अधूरी रहेगी। इस प्रकार, सामाजिक पहचान का अनुभव केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, बल्कि सामूहिक रूप से भी महत्वपूर्ण था, क्योंकि यह समाज के सभी वर्गों को एकजुट करने और समानता की दिशा में अग्रसर करने का प्रयास था।

  प्रेस और शिक्षा: विचारधारा का साधन

ब्रिटिश शासन के लिए असली खतरा खतरनाक हथियारों से नहीं, बल्कि कहीं अधिक प्रभावशाली कलम और विचारधारा से था। बाल गंगाधर तिलक द्वारा प्रकाशित "केसरी", बिपिन चंद्र पाल के "न्यू इंडिया", और आनंदमोहन बोस जैसे शिक्षकों ने जन जागरूकता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन प्रयासों ने जनमत को जागृत करने का कार्य किया। राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन के तहत भारत में ऐसे विद्यालय और महाविद्यालय स्थापित किए जाने लगे, जहां भारतीय संस्कृति और स्वदेशी विचारों को प्राथमिकता दी गई। कर्ज़न का उद्देश्य था कि विश्वविद्यालय केवल नौकरियों के लिए प्रशिक्षित व्यक्तियों का निर्माण करें, जबकि भारतीयों का लक्ष्य था कि वे नेता, विचारक और बुद्धिमान व्यक्तियों का निर्माण करें।

 क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय

भारत में स्वतंत्रता संग्राम की भावना का विकास एक क्रमिक प्रक्रिया थी, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पंजाब में लाला लाजपत राय ने उपनिवेशी शासन के खिलाफ अपनी आवाज उठाई और लोगों को जागरूक करने का कार्य किया। वहीं, बंगाल में अरविंद घोष ने स्वतंत्रता के लिए अपने विचारों को साझा किया, जिससे लोगों में जागरूकता और उत्साह बढ़ा। महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक ने स्वतंत्रता की मांग को न केवल स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया, बल्कि इसे जनमानस के बीच एक आंदोलन का रूप देने में भी सफल रहे। दक्षिण भारत में, सुब्रमण्यम भारती ने अपने लेखन और विचारों के माध्यम से जन जागरूकता को प्रोत्साहित किया, जिससे लोगों में स्वतंत्रता की आकांक्षा और बढ़ी। इस प्रकार, विभिन्न क्षेत्रों के नेताओं के योगदान ने स्वतंत्रता संग्राम की भावना को मजबूत किया और इसे एक व्यापक आंदोलन में परिवर्तित किया।

इन सभी नेताओं के प्रयासों ने विभिन्न क्षेत्रों में उपनिवेशी शासन के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज़ों को उठाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह एक ऐसा महत्वपूर्ण काल था जब "भारतीयता" की पहचान एक समेकित राष्ट्र के रूप में स्थापित होने लगी। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का उदय हुआ, जिन्होंने न केवल स्थानीय मुद्दों को उठाया, बल्कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय भागीदारी निभाई। इन दलों के योगदान ने भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ लाने में मदद की, जिससे स्वतंत्रता की दिशा में एक सशक्त आंदोलन का निर्माण हुआ। इस समय के दौरान, विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक विचारधाराओं का समागम हुआ, जिसने भारतीय समाज को एकजुट करने और उपनिवेशी शासन के खिलाफ एक सशक्त प्रतिरोध तैयार करने में सहायता की।

 स्वदेशी आंदोलन: आर्थिक स्वतंत्रता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम

उन्नीस सौ पांच के बाद, स्वदेशी आंदोलन ने केवल वस्तुओं के बहिष्कार तक सीमित रहने का कार्य नहीं किया, बल्कि यह आत्म-सम्मान और आत्म-निर्भरता का एक व्यापक और गहन आंदोलन बन गया। विदेशी वस्त्रों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान उनकी होली जलाने की घटना ने लोगों के बीच एकता और राष्ट्रीयता की भावना को प्रोत्साहित किया। भारतीय रेलवे की मशीनरी को बढ़ावा देने के लिए कई प्रयास किए गए, जिससे स्वदेशी उद्योगों को महत्वपूर्ण समर्थन प्राप्त हुआ।

महिलाओं और छात्रों ने भी इस आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि यह केवल एक आर्थिक आंदोलन नहीं था, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक जागरूकता का प्रतीक भी बन गया था।

यह वही भारत था जिसे कर्ज़न ने "अविकसित और असमर्थ" के रूप में परिभाषित किया था। उस समय भारत की स्थिति अत्यंत दयनीय थी, जहाँ आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास की कमी थी। लेकिन अब, समय के साथ, भारत ने एक नई दिशा में कदम बढ़ाया था। आज का भारत जागरूक, सशक्त और आत्म-निर्भर बनने की ओर अग्रसर था। यह परिवर्तन न केवल आर्थिक विकास में बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था। लोग अब अपने अधिकारों के प्रति जागरूक थे और आत्म-निर्भरता की दिशा में प्रयासरत थे, जिससे देश की प्रगति में एक नई ऊर्जा का संचार हो रहा था

 स्वतंत्रता संग्राम का प्रेरक तत्व

कर्ज़न की उपनिवेशी नीतियों ने भारत में न केवल असंतोष को जन्म दिया, बल्कि एक क्रांतिकारी उत्साह भी उत्पन्न किया। उन्निस सौ  पांच से  उन्निस सौ सैंतालीस के बीच का समय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सबसे सक्रिय, संवेदनशील और महत्वपूर्ण चरण माना जाता है। इस अवधि में, भारत की राजनीतिक यात्रा ने याचना के प्रारंभिक चरण से विद्रोह की दिशा में कदम बढ़ाया और अंततः स्वतंत्रता की ओर अग्रसर हुई। इस समय के दौरान, विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारकों ने मिलकर एक ऐसा माहौल तैयार किया, जिसमें भारतीय जनता ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने का निर्णय लिया। यह संघर्ष न केवल ब्रिटिश उपनिवेशी शासन के खिलाफ था, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, पहचान और स्वाधीनता की पुनर्स्थापना का भी प्रतीक था। इस प्रकार, यह काल भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में उभरा, जिसने स्वतंत्रता की प्राप्ति की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए।


इस अवधि के दौरान, विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारकों ने मिलकर एक ऐसा वातावरण तैयार किया, जिसमें भारतीय नागरिकों ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष आरंभ किया। यह संघर्ष केवल एक राजनीतिक आंदोलन के रूप में सीमित नहीं था, बल्कि यह भारतीय संस्कृति, पहचान और आत्मसम्मान की पुनर्स्थापना का प्रतीक भी बन गया। इस प्रकार, स्वतंत्रता संग्राम का मुख्य प्रेरक तत्व केवल असंतोष नहीं था, बल्कि यह एक व्यापक सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता और भारतीय जनमानस की जागरूकता का परिणाम भी था। इस संघर्ष ने न केवल राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग की, बल्कि यह समाज के विभिन्न वर्गों के बीच एकजुटता और समानता की भावना को भी प्रोत्साहित किया। इस प्रकार, यह आंदोलन भारतीय समाज के लिए एक नई दिशा और उद्देश्य प्रदान करने वाला बन गया, जिसने लोगों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया और उन्हें एकजुट होकर अपने हक के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया।

अहिंसा की शक्ति

जब मोहनदास करमचंद गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे, तो उन्होंने भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन लाया।

मौलिक अधिकारों की पहली लड़ाई (1917) - यह किसानों के अधिकारों के लिए प्रारंभिक संघर्ष का प्रतीक बन गई, जिसने समाज में जागरूकता फैलाने का कार्य किया।

खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन (1920) - यह हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बन गया, जिसने विभिन्न समुदायों को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

दांडी यात्रा और नमक सत्याग्रह (1930) - यह नागरिक अधिकारों की उच्चतम अभिव्यक्ति के रूप में उभरा, जिसने स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी।

भारत छोड़ो आंदोलन (1942) - यह ब्रिटेन के खिलाफ अंतिम जन विद्रोह का रूप धारण कर गया, जिसने स्वतंत्रता की आकांक्षा को और भी प्रबल किया।

गांधी जी ने राजनीति को आम जनता से जोड़ा, जिससे महिलाओं, किसानों, श्रमिकों और युवाओं को सक्रिय भागीदारी का अवसर मिला, और इस प्रकार उन्होंने एक समावेशी आंदोलन का निर्माण किया।

 भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारी अलगाववादी

महात्मा गांधी ने अपने जीवन में अहिंसा और सत्य के सिद्धांतों को अपनाया, जबकि एक अन्य समूह संघर्ष और बलिदान के मार्ग को चुनने में विश्वास रखता था।

भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, राजगुरु और सुखदेव जैसे साहसी व्यक्तियों ने "इंकलाब जिंदाबाद" के नारे के माध्यम से देशवासियों को जागरूक किया। इन युवाओं ने यह सिद्ध कर दिया कि भारतीय युवा केवल शब्दों के माध्यम से नहीं, बल्कि अपने बलिदान के द्वारा भी अपनी क्षमता को प्रदर्शित कर सकते हैं।

पूर्व ब्रिटिश शासकों को यह स्पष्ट संदेश दिया गया कि भारत अब जाग चुका है और यह अब और सोने वाला नहीं है।

सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फौज

नेहरू और गांधी के साथ-साथ, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सुभाषचंद्र बोस का नाम भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनका प्रसिद्ध नारा "तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें स्वतंत्रता दूँगा" ने लाखों भारतीयों को प्रेरित किया और उन्हें स्वतंत्रता की दिशा में आगे बढ़ने के लिए उत्साहित किया।

सुभाषचंद्र बोस ने जापान के सहयोग से आजाद हिंद फौज की स्थापना की, जिसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष करना था। हालांकि यह सैन्य अभियान पूरी तरह से सफल नहीं हो सका, फिर भी इसने ब्रिटिश सरकार के मन में यह धारणा स्थापित कर दी कि भारत अब केवल याचना करने वाला देश नहीं रह गया है, बल्कि एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभर चुका है। इस प्रकार, सुभाषचंद्र बोस का योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा।

 भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस: आंदोलन से शासन तक

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में हुई, जब यह एक संगठन के रूप में ब्रिटेन से सुधारों की मांग करने के उद्देश्य से गठित किया गया था। प्रारंभ में, इसका मुख्य ध्यान भारतीयों के अधिकारों और राजनीतिक सुधारों की मांग पर केंद्रित था। समय के साथ, यह संस्था विभिन्न सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर ध्यान देने लगी और धीरे-धीरे एक व्यापक स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाली प्रमुख शक्ति के रूप में विकसित हो गई। 1947 तक, कांग्रेस ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और देश की स्वतंत्रता की प्राप्ति में एक केंद्रीय भूमिका निभाई।

इस पार्टी में लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, और विपिन चंद्र पाल की विचारधारा, महात्मा गांधी और पंडित नेहरू की नीतियाँ, साथ ही सरदार पटेल और मौलाना आजाद की रणनीतियाँ एकत्रित की गई हैं। इन सभी विचारों और दृष्टिकोणों का समन्वय कांग्रेस के भीतर स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। यह एक ऐसा संगम है जिसमें विभिन्न विचारधाराएँ और रणनीतियाँ एक साथ मिलकर एक सशक्त राजनीतिक मंच का निर्माण करती हैं। लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, और विपिन चंद्र पालकी विचारधारा ने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक नई ऊर्जा का संचार किया, जबकि महात्मा गांधी की अहिंसा और सत्याग्रह की नीतियों ने जनमानस को एकजुट किया। पंडित नेहरू की आधुनिकता की दृष्टि और सरदार पटेल की एकता की रणनीतियाँ, साथ ही मौलाना आजाद की शिक्षा और सामाजिक सुधारों की सोच, सभी ने मिलकर कांग्रेस को एक व्यापक और समृद्ध दृष्टिकोण प्रदान किया। इस प्रकार, यह सभी विचारधाराएँ और नीतियाँ कांग्रेस के भीतर एक सामंजस्यपूर्ण और प्रभावी राजनीतिक दिशा को दर्शाती हैं।

कांग्रेस ने भारत को स्वतंत्रता दिलाने में एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शासन की जिम्मेदारियों को भी अपने कंधों पर लिया। भारत अब एक नए युग में प्रवेश कर चुका था, जिसमें न केवल नई संभावनाएँ थीं, बल्कि पंडित नेहरू को नई चुनौतियों और निर्णयों का सामना करने की जिम्मेदारी भी सौंपी गई। इस समय, देश को एक स्थिर और प्रभावी शासन की आवश्यकता थी, जिससे कि स्वतंत्रता के बाद की चुनौतियों का सामना किया जा सके और विकास की दिशा में ठोस कदम उठाए जा सकें। पंडित नेहरू ने इस दायित्व को स्वीकार करते हुए देश के विकास और समृद्धि के लिए कई महत्वपूर्ण नीतियों और कार्यक्रमों की शुरुआत की।


 पंडित नेहरू का उदय: आधुनिक भारत की परिकल्पना

पंद्रह अगस्त उन्नीस सैंतालीस को, जब ब्रिटिश ध्वज को उतारकर भारतीय ध्वज को गर्व से फहराया गया, तब भारत ने एक नए युग में कदम रखा। स्वतंत्रता की प्राप्ति का जो उत्साह था, वह हर भारतीय के हृदय में गूंज रहा था। लेकिन इस खुशी के साथ-साथ देश को कई गंभीर चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा। विभाजन के घाव, रियासतों की समस्या, उड़ीसा की कठिनाइयाँ, और भविष्य की अनिश्चितताएँ, ये सभी मुद्दे उस समय देश के समक्ष उपस्थित थे। इस ऐतिहासिक क्षण में, पंडित जवाहरलाल नेहरू ने नेतृत्व की जिम्मेदारी को कुशलता से निभाया। उनके दृष्टिकोण और नेतृत्व ने न केवल स्वतंत्रता के बाद के भारत को आकार दिया, बल्कि आधुनिक भारत की परिकल्पना को भी साकार किया।

नेहरू की विचारधारा

पंडित नेहरू केवल स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख नेता ही नहीं थे, बल्कि उन्होंने आधुनिक भारत के निर्माण का एक अद्वितीय और प्रेरणादायक सपना भी देखा था। उनका दृष्टिकोण केवल राजनीतिक सीमाओं में नहीं बंधा था, बल्कि उन्होंने सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए एक व्यापक और समग्र दृष्टि प्रस्तुत की। नेहरू ने यह समझा कि एक स्वतंत्र राष्ट्र की नींव केवल राजनीतिक स्वतंत्रता पर नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय, आर्थिक समृद्धि और सांस्कृतिक विकास पर भी निर्भर करती है। उनके विचारों में एक समग्र दृष्टिकोण था, जिसमें शिक्षा, विज्ञान, और तकनीकी प्रगति को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया। इस प्रकार, पंडित नेहरू ने न केवल स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी, बल्कि एक ऐसे भारत की कल्पना की, जो समृद्ध, सशक्त और समावेशी हो।

उनकी शिक्षा हाररो, ईटन और कैम्ब्रिज जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में हुई, जिसने उन्हें पश्चिमी लोकतंत्र, समाजवाद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति गहरी समझ और संवेदनशीलता प्रदान की। इस उच्चस्तरीय शिक्षा ने उन्हें एक ऐसे नेता के रूप में विकसित किया, जो न केवल अपने देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहा था, बल्कि उसके समग्र विकास के लिए एक ठोस और प्रभावी रणनीति भी तैयार कर रहा था। इस प्रकार, उनकी शिक्षा ने उन्हें एक व्यापक दृष्टिकोण और विचारशीलता से लैस किया, जिससे वे अपने देश की सामाजिक और आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यक कदम उठाने में सक्षम हुए।

नेहरू वैज्ञानिक दृष्टिकोण से गहराई से प्रभावित थे, जो उनके विचारों और नीतियों में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। उनकी सोच का मुख्य केंद्र अमूर्त समाजवाद और औद्योगिक विकास था। उन्होंने यह समझा कि भारत को गरीबी, अशिक्षा और भेदभाव जैसी गंभीर समस्याओं से मुक्त करने के लिए एक ठोस और समग्र रणनीति की आवश्यकता है। उनका दृढ़ विश्वास था कि यदि इन समस्याओं का प्रभावी समाधान किया जाए, तो भारत एक आधुनिक, वैज्ञानिक और औद्योगिक राष्ट्र के रूप में उभर सकता है। नेहरू का यह दृष्टिकोण न केवल आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करता था, बल्कि सामाजिक न्याय और समानता की दिशा में भी महत्वपूर्ण कदम उठाने की आवश्यकता को रेखांकित करता था। उनके विचारों ने भारतीय समाज के विकास में एक नई दिशा प्रदान की, जिससे देश की प्रगति की संभावनाएं बढ़ीं।

बटवारे की त्रासदी: सबसे बड़ी कीमत

भारत को उस समय पर्याप्त सहायता नहीं मिली। इस विभाजन के परिणामस्वरूप लाखों लोगों ने अपनी जानें गंवाईं, जबकि करोड़ों अन्य लोग प्रभावित हुए। हिंदू-मुस्लिम संबंधों में आई दरार ने देश की आत्मा को गहराई से झकझोर दिया। उस कठिन समय में, जब चारों ओर अविश्वास, भय और अराजकता का माहौल व्याप्त था, पंडित नेहरू ने देश को सहारा प्रदान किया। उन्होंने रेडियो पर कहा: "मैंने एक युग के सपने को साकार होते देखा, लेकिन इसके साथ ही हमने उस सपने की कीमत खून और आंसुओं से चुकाई है।"

इस विभाजन की त्रासदी ने मानव जीवन पर गहरा प्रभाव डाला, साथ ही यह एक सामाजिक और राजनीतिक संकट का भी कारण बनी। लाखों परिवार बिखर गए, और अनेक लोगों को अपने घरों से बेघर होना पड़ा। इस कठिन समय में, नफरत और हिंसा ने समाज को विभाजित कर दिया, जिससे एक गहरी खाई उत्पन्न हुई। पंडित नेहरू के नेतृत्व में, देश ने एकजुटता और सहिष्णुता का संदेश फैलाने का प्रयास किया, लेकिन यह भी सत्य है कि इस प्रक्रिया में बहुत से लोगों ने अपने प्रियजनों को खो दिया। यह एक ऐसा समय था जब भारत ने अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष किया और एक नई पहचान की खोज में जुटा रहा।

 स्वतंत्र भारत की संस्थाएँ:

जवाहरलाल नेहरू का यह दृढ़ विश्वास था कि भारत को केवल राजनीतिक स्वतंत्रता की आवश्यकता नहीं है, बल्कि आर्थिक स्वतंत्रता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत की, जिसमें कृषि, खनन और भारी उद्योग में निवेश को प्राथमिकता दी गई।

इस अवधि में भाखड़ा नांगल बांध का निर्माण हुआ और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) तथा हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) जैसी प्रमुख संस्थाओं की स्थापना की गई। नेहरू ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण, तकनीकी शिक्षा और योजनाबद्ध विकास को राष्ट्रीय नीति का अनिवार्य हिस्सा बनाने का प्रयास किया। उनका मानना था कि "नव भारत का निर्माण गांवों से होगा, लेकिन इसका दृष्टिकोण आकाश की ओर होगा।"


लोकतंत्र की आधारशिला

जवाहरलाल नेहरू ने एक ऐसा राज्य स्थापित किया, जो समानता के सिद्धांत पर आधारित था और जिसमें समाजवादी अधिकारों को समाहित किया गया। उन्होंने स्पष्ट रूप से यह कहा था कि "हमारा धर्म संविधान होगा।"

इस प्रकार, भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्थापित किया गया, जिसमें प्रत्येक नागरिक को समान स्वतंत्रता, भाषाई और सांस्कृतिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया। यह संविधान न केवल नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है, बल्कि समाज में समानता और न्याय की भावना को भी बढ़ावा देता है। इस दृष्टिकोण ने भारत को एक समृद्ध और विविधतापूर्ण समाज के रूप में विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

विदेश नीति: गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत

शीत युद्ध के कालखंड में, भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भारत को किसी भी महाशक्ति के प्रभाव से मुक्त रखने का संकल्प लिया। उन्होंने भारत को एक गुट निरपेक्ष राष्ट्र के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया, ताकि देश अपनी स्वतंत्रता और संप्रभुता को बनाए रख सके।

नेहरू ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए मिस्र के राष्ट्रपति गामल अब्देल नासेर, यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप ब्रोज़ टीटो और इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो जैसे प्रमुख वैश्विक नेताओं के साथ मिलकर "गुटनिरपेक्ष आंदोलन" की स्थापना की।

इस आंदोलन का प्राथमिक उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि भारत अपने अंतरराष्ट्रीय निर्णयों को स्वतंत्र रूप से ले सके, बिना किसी बाहरी दबाव या खतरे के। इस प्रकार, गुटनिरपेक्षता ने भारत को वैश्विक राजनीति में एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर भूमिका निभाने का अवसर प्रदान किया, जिससे देश ने अपनी पहचान को मजबूती से स्थापित किया।

 औपनिवेशिक शासन और स्वतंत्र भारत की चुनौतियाँ

1947 में भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त होने के बावजूद, ब्रिटिश राज की संरचना, प्रणाली और संस्थाएँ इतनी गहराई से स्थापित थीं कि उनका पूर्ण रूप से समाप्त होना एक दीर्घकालिक प्रक्रिया बन गया। पंडित नेहरू को केवल एक नए राष्ट्र का निर्माण करना ही नहीं था, बल्कि उन्हें औपनिवेशिक मानसिकता और विचारधारा से भी देश को मुक्त करना आवश्यक था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह एक महत्वपूर्ण आवश्यकता बन गई, ताकि भारत एक सशक्त और आत्मनिर्भर राष्ट्र के रूप में उभर सके।

इस संदर्भ में, स्वतंत्र भारत को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। इनमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याएँ शामिल थीं, जो औपनिवेशिक शासन के दौरान उत्पन्न हुई थीं। देश को एकजुट रखने, विकास की दिशा में आगे बढ़ने और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए एक ठोस नीति और दृष्टिकोण की आवश्यकता थी। इसके साथ ही, शिक्षा, स्वास्थ्य, और बुनियादी ढाँचे के विकास में भी सुधार की आवश्यकता थी, ताकि देश की जनता को बेहतर जीवन स्तर मिल सके।

इस प्रकार, स्वतंत्रता के बाद भारत को न केवल औपनिवेशिक विरासत से मुक्ति पाना था, बल्कि एक नई पहचान और दिशा भी स्थापित करनी थी, जिससे वह वैश्विक मंच पर एक सशक्त राष्ट्र के रूप में उभर सके।

ब्रिटिश भारत में स्थापित भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) प्रणाली, जिसे शासन के लिए एक साधन के रूप में विकसित किया गया था, स्वतंत्र भारत में एक यांत्रिक व्यवस्था में परिवर्तित हो गई। नाम में बदलाव आया, लेकिन वास्तविकता में कई पहलू अपरिवर्तित रहे: जनसेवा के बजाय आदेश देने की प्रवृत्ति बनी रही। कानून प्रणाली, फ़ाइल प्रबंधन, और ब्यूरोक्रेसी का केंद्रीकरण - ये सभी पुराने राजशाही सिद्धांतों के अनुरूप हैं। पंडित नेहरू ने इस परंपरा में बदलाव लाने का प्रयास किया, लेकिन वास्तविक लोकतांत्रिक परिवर्तन में समय लगना स्वाभाविक था।

 वर्तमान समय में, भारत की न्याय प्रणाली मुख्यतः सामान्य कानूनों पर आधारित है, जिनमें भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) शामिल हैं, जो 19वीं सदी में लागू की गई थीं। न्याय प्रक्रिया की जटिलता और तकनीकी पहलुओं के कारण आम नागरिकों के लिए न्याय प्राप्त करना एक चुनौती बन गया है। पंडित नेहरू ने इस प्रणाली में सुधार लाने के लिए निरंतर प्रयास किए, लेकिन संविधान सभा के सिद्धांतों में राजनीतिक विविधता को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने न्याय में सुधार की आवश्यकता को गहराई से समझा। इस संदर्भ में, न्याय प्रणाली को अधिक सुलभ और प्रभावी बनाने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है, ताकि सभी नागरिकों को समान और त्वरित न्याय मिल सके।

रियासतों का एकीकरण और भाषाई विवाद

उन्नीस सौ सैंतालीस में भारत एक अत्यंत विविधता से भरा हुआ राष्ट्र था, जिसमें विभिन्न रियासतें, संरचनाएं और समुद्र शामिल थे। इस समय, सरदार पटेल और पंडित नेहरू के नेतृत्व में 500 से अधिक रियासतों का एकीकरण किया गया, जिससे ये सभी रियासतें एक एकीकृत भारत का अभिन्न हिस्सा बन गईं।

इस एकीकरण की प्रक्रिया के साथ-साथ भाषाई आधार पर राज्यों के गठन का मुद्दा भी सामने आया, जिसने भारत को नई प्रशासनिक सुविधाएं प्रदान कीं। 1956 में लागू राज्य पुनर्रचना अधिनियम ने राज्यों का पुनर्गठन भाषाई आधार पर किया, जिसके परिणामस्वरूप क्षेत्रीय राजनीति को एक नई शक्ति मिली।

ब्रिटिश शासन की प्रमुख प्रवृत्ति "शासन करना" और "जनता पर नियंत्रण बनाए रखना" थी। यह प्रवृत्ति स्वतंत्र भारत में कई क्षेत्रों में आज भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है:

• पुलिस प्रशासन अब भी "सेवा" के बजाय "सत्ता" के रूप में कार्य करता है, जिससे आम जनता में भय का माहौल बना रहता है।

• शिक्षा प्रणाली में वही पुराना पाठ्यक्रम और अंग्रेजी नागरिकता का प्रभाव आज भी विद्यमान है, जो भारतीय संस्कृति और भाषा के विकास में बाधा उत्पन्न करता है।

• जनता का शासकों से भय रखना, लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है, क्योंकि यह नागरिकों की स्वतंत्रता और अधिकारों का उल्लंघन करता है।

जवाहरलाल नेहरू ने इस दिशा में प्रयास किया कि भारत की आत्मा को जागरूक किया जाए, जिसमें सत्य की सेवा को प्राथमिकता दी जाए।


 कर्ज़न और नेहरू: एक अद्वितीय परिवर्तन

लॉर्ड कर्जन और पंडित नेहरू के युगों के बीच का अंतर केवल साम्राज्यवादी और स्वतंत्रता प्रेमी के दृष्टिकोण तक सीमित नहीं था, बल्कि यह विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तनों का भी संकेत करता है। कर्ज़न ने ब्रिटिश साम्राज्य की शक्ति को बनाए रखने के लिए कठोर औपनिवेशिक नीतियों को लागू किया, जिसके परिणामस्वरूप भारतीय समाज में असंतोष और विद्रोह की भावना में वृद्धि हुई। इसके विपरीत, नेहरू ने अहिंसा, समाजवाद और आत्मनिर्भरता के सिद्धांतों पर आधारित एक नई दिशा का सपना देखा। उनका उद्देश्य भारतीय जनता को स्वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्याय की ओर अग्रसर करना था। इस प्रकार, दोनों नेताओं के दृष्टिकोण और नीतियों में न केवल भिन्नता थी, बल्कि वे अपने-अपने समय के सामाजिक और राजनीतिक परिवेश को भी स्पष्ट रूप से दर्शाते थे।

  कर्जन की साम्राज्यवादी नीतियाँ: फूट डालो और राज करो

लॉर्ड कर्ज़न के शासनकाल में भारत एक औपनिवेशिक, दमनकारी और विभाजनकारी नीति के अधीन था। उनकी नीतियाँ भारतीय समाज में साम्प्रदायिक भेदभाव को बढ़ावा देने वाली थीं, और बंगाल का विभाजन इस नीति का एक प्रमुख उदाहरण था। कर्ज़न का मुख्य उद्देश्य भारतीयों के बीच विभाजन करना था, ताकि वे एकजुट होकर विरोध न कर सकें। उनका लक्ष्य ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूत करना और भारतीय समाज को अपने नियंत्रण में रखना था। हालांकि उनकी यह रणनीति कुछ समय तक प्रभावी रही, लेकिन अंततः इससे राष्ट्रीय एकता के पक्ष में एक रूढ़िवादी, स्वदेशी और स्वतंत्रता आंदोलन का उदय हुआ।

नेहरू की दृष्टि: लोकतंत्र, लोकतंत्र और विज्ञान का विकास

नेहरू ने भारत के लिए एक नई दिशा में इंजीनियरिंग की नींव रखी, जो पूरी तरह से आधुनिकता और आत्मनिर्भरता पर केंद्रित थी। उनके दृष्टिकोण के अनुसार, स्वतंत्रता केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि आर्थिक और सामाजिक भी होनी चाहिए।


नेहरू ने भारत को एक ऐसे राष्ट्र के रूप में परिकल्पित किया, जहाँ कोई भी धर्म, जाति या पंथ एक दूसरे से श्रेष्ठ न हो, और सभी को समान अवसर प्राप्त हों। समाजवाद और औद्योगिकीकरण के संदर्भ में, उनका मानना था कि भारतीय समाज में बड़े पैमाने पर औद्योगिकीकरण और विकास के लिए सामाजिक और आर्थिक लाभ प्राप्त करना आवश्यक है।


उन्होंने पंचवर्षीय योजनाओं और सार्वजनिक क्षेत्र के अनुयायियों के माध्यम से इस दिशा में कदम उठाए। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में, नेहरू ने इन्हें भारत की प्रगति के महत्वपूर्ण स्तंभों के रूप में देखा। उन्होंने इसरो और बीएचएल जैसी संस्थाओं की स्थापना की, ताकि भारत एक वैश्विक शक्ति बन सके।


एकता और विविधता:

भारत का भविष्य जवाहरलाल नेहरू ने भारत की विविधता को एक शक्ति के रूप में देखा, न कि एक कमजोरी के रूप में। उन्होंने एक ऐसे राष्ट्र का सपना देखा, जो लोकतांत्रिक और समृद्ध हो, न कि केवल निर्धनता का प्रतीक। उनका उद्देश्य था कि भारत एक ऐसा देश बने, जहां विभिन्न भाषाएं, संस्कृतियां और समुदाय मिलकर एकजुट होकर एक लोकतांत्रिक और समृद्ध समाज का निर्माण करें।

नेहरू के दृष्टिकोण में, भारत केवल एक राष्ट्र नहीं था, बल्कि यह असंबद्धता का प्रतीक भी था - एक ऐसा संविधान, जो लोकतंत्र और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर आधारित था। उनका मानना था कि विविधता में एकता ही भारत की पहचान है और यही इसे एक मजबूत राष्ट्र बनाती है। इस दृष्टिकोण के माध्यम से, उन्होंने एक ऐसा समाज बनाने की कोशिश की, जहां सभी समुदायों को समान अधिकार और अवसर प्राप्त हों।

असंबद्ध की यह क्रांति: कर्ज़न से नेहरू तक


लॉर्ड कर्जन ने भारतीयों को एक अधीनता की स्थिति में रखा, जिससे उन्हें अपने भविष्य का निर्माण करने का अवसर नहीं मिला। उनके शासनकाल में भारतीयों को केवल एक उपनिवेश के रूप में देखा गया, जिससे उनकी स्वायत्तता और विकास की संभावनाएँ सीमित हो गईं।

इसके विपरीत, जवाहरलाल नेहरू ने न केवल राजनीतिक स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता का भी एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। उन्होंने भारतीय समाज को केवल स्वतंत्रता ही नहीं, बल्कि स्वाधीनता का अधिकार भी प्रदान किया, जिससे लोगों में आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता का संचार हुआ।

कर्जन ने भारतीय समाज में विभाजन की रणनीति अपनाई, जबकि नेहरू ने एकता की ओर अग्रसर होने का प्रयास किया। नेहरू का यह मानना था कि भारत की प्रगति केवल एकता और सहयोग के माध्यम से ही संभव है।

कर्जन का दृष्टिकोण साम्राज्यवादी था, जो केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए कार्य करता था। इसके विपरीत, नेहरू ने आत्मनिर्भरता और विकास की आवश्यकता पर जोर दिया। उनका यह विश्वास था कि भारत का विकास केवल औद्योगिकीकरण और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के माध्यम से ही संभव है, जिससे देश को नई दिशा प्राप्त हो सके।

निष्कर्ष:

लॉर्ड कर्ज़न और पंडित नेहरू के युग के बीच केवल साम्राज्य और स्वतंत्रता का अंतर नहीं था, बल्कि यह एक असंबद्ध क्रांति का प्रतीक भी था। कर्ज़न की नीतियों ने भारत के विभाजन और दमन को बढ़ावा दिया, जबकि नेहरू ने एकता, लोकतंत्र और सामाजिक न्याय पर आधारित नए भारत का निर्माण करने का प्रयास किया। यह परिवर्तन राजनीतिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि भारतीय समाज की मूल धारा को भी प्रभावित किया। इसने भारत को संविधान के सिद्धांतों पर आधारित लोकतंत्र और समाजवाद की दिशा में आगे बढ़ने में सक्षम बनाया। यह विघटन की क्रांति थी, जो आज भी भारत की पहचान और भविष्य को आकार देती है।